बोकारो(BOKARO): बोकारो की राजनीति की कहानी जब भी आगे बढ़ती है, वहां एक व्यक्तित्व का नाम हमेशा सुनाई देता है—समरेश सिंह। जनता के दिलों में वे मात्र एक नेता नहीं, बल्कि “दादा” के रूप में बसे हुए थे। करीब चालीस से पैंतालीस साल तक बोकारो की राजनीति का केंद्र बिंदु वही रहे। ऐसा प्रभाव, जिसे नज़रअंदाज़ कर कोई भी राजनीतिक चर्चा पूरी हो ही नहीं सकती थी। राजनीति का अल्फ़ाज़ भी जिन दिनों लोगों के लिए नया था, उसी दौर में समरेश सिंह ने अपनी पहचान न सिर्फ़ राज्य में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी मजबूत कर ली। उनका बिंदास अंदाज़, साफगोई और निर्णयों में निर्भीकता उन्हें अलग खड़ा करती थी।
कमल से उनका जुड़ाव — कहानी दिलचस्प
साल 1977 में वे पहली बार विधान सभा चुनाव मैदान में उतरे—स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में। चुनाव चिन्ह मिला कमल। उस समय भाजपा का औपचारिक अस्तित्व भी नहीं था। प्रचार के दौरान उन्होंने कमल को समृद्धि और शक्ति का प्रतीक कहकर लोगों को जोड़ा और पहली ही बार में विधानसभा पहुंच गए।
फिर 1980 आया—मुंबई में भाजपा का पहला अधिवेशन। कहा जाता है, इसी मंच पर कमल को भाजपा का स्थायी चुनाव चिन्ह बनाने का सुझाव दादा ने ही अटल बिहारी वाजपेयी को दिया। बाद में राजमाता विजयराजे सिंधिया के समर्थन से यह सुझाव स्वीकार हुआ। आज भी पुराने भाजपा नेता मानते हैं कि कमल के प्रतीक की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी समरेश दादा ही थे।
जीत, संघर्ष और जनता के लिए समर्पण
राजनीति में वे सिर्फ़ पद के लिए नहीं, बल्कि आवाज़ बनने के लिए आए थे। उनकी बातें जहां गुस्सा जगाती थीं, वहीं सच्चाई की तेज भी लिए होती थीं। समर्थक उन्हें निर्भीक कहते थे—विरोधी भी उनकी लोगों पर पकड़ को मानते थे।
1980 में भाजपा के टिकट पर चुनाव हारा जाना उन्हें रोक नहीं पाया। 1985 और 1990 में वही भाजपा टिकट उन्हें फिर विजयी बनाकर लौटा लाया।
मगर बाद में हालात ऐसे बने कि दादा ने भाजपा से दूरी बना ली। जानकार मानते हैं, यदि वे उसी दल में बने रहते तो आज भारतीय राजनीति के ऊपरी पायदान पर उनका स्थान सुनिश्चित होता।
जनता के दादा — पद नहीं, भरोसा उनका आधार
वे चाहे सत्ता पक्ष में रहे हों या विपक्ष में—बोलते जनता के लिए ही थे।
मंत्री पद को उन्होंने कभी अपनी पहचान नहीं बनने दिया। आत्मसम्मान और जनसमर्थन—दोनों पर वे समान रूप से अडिग थे। समर्थकों के संकट में वे अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई पड़ते थे। उनकी लोकप्रियता किसी पार्टी की देन नहीं थी—वह उनके खुद के व्यक्तित्व की कमाई थी।
दादा की याद — बोकारो की राजनीति का उजला पन्ना
आज उनकी तीसरी पुण्यतिथि है।
वक़्त आगे बढ़ गया है, पर दादा की छाप आज भी ताज़ा है।
इस शहर के राजनीतिक इतिहास का स्वर्णिम अध्याय जब भी खुलता है—
वह इनके बिना अधूरा ही माना जाता है।
दादा न केवल याद किए जाते हैं—वे बोकारो में आज भी महसूस किए जाते हैं।